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Blog / 02 Nov 2019

(आर्थिक मुद्दे) जलवायु परिवर्तन और अर्थव्यवस्था (Climate Change and Economy)

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(आर्थिक मुद्दे) जलवायु परिवर्तन और अर्थव्यवस्था (Climate Change and Economy)


एंकर (Anchor): आलोक पुराणिक (आर्थिक मामलों के जानकार)

अतिथि (Guest): अजय शंकर (पूर्व उद्योग सचिव), संदीप दास (कृषि मामलों के जानकार)

चर्चा में क्यों?

अमूमन 1 सितम्बर से मानसून का लौटना शुरू हो जाता है, लेकिन इस साल मानसून की विदाई करीब 45 दिन देरी से हुई। पिछले करीब 60 सालों में ऐसा पहली बार हुआ है, जब मानसून के लौटने में इतनी देरी हुई है। मानसून खत्म होने के तय तारीख़ के 2 हफ्ते बाद तक देश के कई हिस्सों में इतनी बारिश हुई जितनी आमतौर पर जुलाई-अगस्त के महीनों में भी नहीं हुआ करती थी।

इस आशय की खबरें आ रही हैं कि तमाम इलाकों में दो ही दिन में इतनी बारिश हो गयी, जितनी आम तौर पर पहले पूरे महीने के दौरान भी नहीं हुआ करती थी।

क्या है यह जलवायु परिवर्तन?

पिछली कुछ सदियों से हमारी जलवायु में धीरे-धीरे परिवर्तन देखा जा रहा है। यानी, दुनिया के तमाम देशों में सैकड़ों सालों से जो औसत तापमान बना हुआ था, उसमें अब बदलाव हो रहा है। पृथ्वी का औसत तापमान अभी करीब 15 डिग्री सेल्सियस है, हालाँकि तापमान का बहुत ज्यादा होना या कम होना कोई पहली बार की घटना नहीं है। लेकिन अब पिछले कुछ सालों में जलवायु में अचानक तेज़ी से बदलाव हो रहा है।

  • मौसम की अपनी विशेषता होती है, लेकिन अब इसका ढंग बदल रहा है। गर्मियां लंबी होती जा रही हैं, और सर्दियां छोटी। इस तरह का बदलाव केवल भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में हो रहा है। इसी परिघटना को जलवायु परिवर्तन का नाम दिया गया है।
  • जलवायु परिवर्तन के तहत तापमान में बढ़ोत्तरी, बारिश का बदलता पैटर्न और तूफान एवं सूखा जैसी विनाशकारी घटनाएँ शामिल हैं। इन सभी घटनाओं का समाज के न केवल आर्थिक जीवन-स्तर पर बल्कि अन्य आयामों पर दीर्घकालिक प्रभाव देखने को मिलता है।

जलवायु परिवर्तन का प्रभाव

2018 में विश्व बैंक ने ‘साउथ एशियाज हॉटस्पॉट्स: द इम्पैक्ट ऑफ़ टेम्परेचर एंड प्रेसिपिटेशन चेंजेज़ ऑन लिविंग स्टैंडर्ड्स’ नाम से एक रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट में विश्व बैंक ने दक्षिण एशिया पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का आकलन किया है। गौरतलब है कि भारत दक्षिण एशिया का ही हिस्सा है।

  • रिपोर्ट में बताया गया है कि आने वाले दशकों में इस पूरे क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन का व्यापक प्रभाव देखने को मिल सकता है। जिसमें सबसे ज्यादा बदलाव तापमान में परिवर्तन के रूप में दिख सकता है जिसके चलते बारिश के पैटर्न में बड़े बदलाव के आसार हैं।
  • रिपोर्ट के मुताबिक समुद्र के जल-स्तर में वृद्धि और विनाशकारी मौसमी घटनाओं के अलावा तटीय क्षेत्रों से दूर आंतरिक इलाकों के औसत मौसम में बड़े बदलाव देखने को मिलेंगे। यानी अब जलवायु परिवर्तन का नतीजा ज़्यादा भयावह होगा।
  • अधिकांश देशों में, औसत मौसम में बदलाव के कारण उनकी प्रति व्यक्ति जीडीपी वृद्धि में कमी आ जाएगी। साथ ही, इसका असर स्वास्थ्य, कृषि, पलायन और उत्पादकता जैसे कई क्षेत्रों पर पड़ेगा। इसके चलते लोगों के व्यय क्षमता में कमी आएगी।

क्या कहते हैं आंकड़े?

संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के मुताबिक 2025 तक दुनिया के दो-तिहाई लोग जल संकट की परिस्थितियों में रहने को मजबूर होंगे। ऐसे में मरुस्थलीकरण के चलते विस्थापन बढ़ेगा। नतीजतन 2045 तक करीब 13 करोड़ से ज्यादा लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ा सकता है।

  • अंतरराष्ट्रीय संस्था 'वाटर एड' की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ साल 2030 तक दुनिया के 21 शहरों में डे-जीरो (Day Zero) यानी पानी पूरी तरह खत्म होना जैसे हालात बन जाएंगे। साल 2040 तक भारत समेत 33 देश पानी के लिए तरसने लगेंगे। जबकि वर्ष 2050 तक दुनिया के 200 शहर खुद को डे-जीरो वाले हालात में पाएंगे।
  • केंद्रीय जल आयोग द्वारा जारी एक आंकड़े के मुताबिक पिछले 64 साल (साल 1953 से लेकर 2017 तक) में बाढ़ के चलते करीब एक लाख से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है।
  • बाढ़ के चलते किसानों की ज़मीन और मानव बस्तियों के डूबने से देश की अर्थव्यवस्था और समाज दोनों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। बाढ़ न सिर्फ फसलों को बर्बाद करती है बल्कि आधारभूत ढांचे मसलन सड़कें, रेल मार्गों, पुल और मानव बस्तियों को भी काफी नुकसान पहुँचाती है।
  • इसके अलावा बाढ़ग्रस्त इलाकों में कई तरह की बीमारियाँ मसलन कालरा, एंट्राइटिस यानी आंत्रशोथ, और हेपेटाईटिस समेत तमाम बीमारियां फैल जाती हैं। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनिया भर में बाढ़ से होने वाली मौतों में से 20 फीसदी भारत में ही होती है।

सेंदाई फ्रेमवर्क क्या है?

18 मार्च, 2015 को जापान के सेंदाई शहर में आयोजित आपदा जोखिम में कमी को लेकर तीसरे संयुक्त राष्ट्र विश्व सम्मेलन का आयोजन किया गया। इस दौरान सेंदाई फ्रेमवर्क को अपनाया गया। इस फ्रेमवर्क में यह स्वीकार किया गया कि आपदा जोखिम को कम करने के लिए प्राथमिक भूमिका सरकार की होती है लेकिन इसमें स्थानीय सरकार, निजी क्षेत्र और अन्य हितधारकों की भी जिम्मेदारी होती है। सेंदाई फ्रेमवर्क में आपदा से निपटने के लिए तमाम गाइडलाइन्स बताये गए हैं।

सूखा और भारतीय अर्थव्यवस्था

मानसून भारत के कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था के लिए जीवनदायी कारक की तरह है। यहाँ आधी खेती बारिश पर ही निर्भर है। ऐसी स्थिति में जल संकट के कारण देश की वृद्धि और अर्थव्यवस्था पर असर पड़ सकता है। लगभग 80 करोड़ लोग गाँवों में रहते हैं और कृषि पर निर्भर हैं, कृषि का योगदान भारत के सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 15% है। ऐसे में, बारिश ना होने के कारण सीधे तौर पर या परोक्ष तौर पर भारत के 26.3 करोड़ किसान प्रभावित होते हैं।

  • गंभीर जल संकट के कारण सूखा प्रभावित क्षेत्र में खाद्यान्न की कमी हो जाती है। लंबे समय तक सूखे के कारण वहाँ की मिट्टी अनुत्पादक और बजंर हो जाती है। बाद में यही क्षेत्र रेगिस्तान में बदल जाता है।
  • कृषि आधारित उद्योगों के लिए कच्चे माल की कमी हो जाती है। इसका नतीज़ा यह होता है कि ये सारे उद्योग बर्बाद हो जाते हैं। साथ ही आवश्यक वस्तुओं और सामानों की कीमतों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हो जाती है।
  • कई प्रकार की बीमारियाँ और महामारियां पैदा हो जाती है। साथ ही चोरी, हत्या, आत्महत्या, डकैती समेत दूसरी सामाजिक दिक्कतों का भी सामना करना पड़ता है।
  • इसके अलावा ऐसे जगहों से पलायन शुरू हो जाता है जिसके कारण दूसरे जगहों पर भी समस्याएँ देखने को मिलती है।
  • सूखे जैसी स्थिति ग्रामीण आय और खपत को प्रभावित करती है, और सरकार को कृषि ऋण माफी जैसे क़दम उठाना, जिससे वित्त पर दबाव पड़ता है।
  • सूखे के कारण मनोरंजन और पर्यटन उद्योग को भी नुकसान पहुंचता है। पानी से जुड़े स्पोर्ट जैसे कि रीवर राफ्टिंग और तैराकी जैसे कारोबारों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।

आगे क्या किया जाना चाहिए?

जलवायु परिवर्तन के चलते अलग-अलग क्षेत्रों पर किस तरह के प्रभाव पड़ने वाले हैं, इसका समुचित विश्लेषण करके उस क्षेत्र की जरूरतों के मुताबिक एक दीर्घकालिक रणनीति बनाई जानी चाहिए। ताकि भविष्य में आने वाली आपदाओं से निपटा जा सके। क्योंकि कोई एक रणनीति हर स्थानीय क्षेत्र के लिए फिट नहीं बैठ सकती।

  • हमें मानव पूँजी और बुनियादी ढांचे में इस तरह के निवेश करने होंगे, जिससे हम इस तरह के किसी भी विनाशकारी घटनाओं से बेहतर तरीके से निपटने में सक्षम हो और हमारी क्षमता में वृद्धि हो। मिसाल के तौर पर अगर हम इसी साल के बारिश की घटना को देखें तो देश के पास सामान्य वर्षा के पानी को भी रोक कर रखने लायक मजबूत बांध या जलाशय नहीं हैं। इसलिए यह सोचना बिल्कुल बेकार होगा कि अगर देश में ज्यादा पानी गिरा है तो आने वाले दिनों में पानी की कमी नहीं रहेगी। इस बार बादलों से जो लबालब पानी मिला था वह नदियों से होता हुआ और बाढ़ की तबाही मचाता हुआ वापस समुद्र में चला गया।
  • जलवायु परिवर्तन किसी एक देश की समस्या नहीं है बल्कि पूरी मानवता के लिए एक बड़ी दिक्कत की तरह है। ऐसे में, बुद्धिमानी इसी में है कि सभी देश मिलकर इसके लिए काम करें, अन्यथा गलती चाहे किसी की हो परिणाम सभी भुगतेंगे।
  • सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हम इंसानों को विकास और प्रकृति के बीच में संतुलन बिठाना होगा। बेतहाशा किया जाने वाला भौतिक विकास आगे चलकर विनाशकारी ही साबित होगा।